ज़रा सा, ज़रा सा : जन्नत - 2



ज़रा सा, ज़रा सा
लगे तू खफ़ा सा
ज़रा सा, ज़रा सा
गिला बेवजह सा
तेरे ही लिए, तुझसे हूँ जुदा
जन्नतें कहाँ, बिन हुए फना
(ज़रा सा, ज़रा सा
मुझे है गुमा सा
ज़रा सा, ज़रा सा
अभी है नशा सा
तेरे ही लिए, तुझसे हूँ जुदा
जन्नतें कहाँ, बिन हुए फना)

(ज़रा सा, ज़रा सा
राहों में धुंआ सा
तेरे ही लिए, तुझसे हूँ जुदा
जन्नतें कहाँ, बिन हुए फना)

अब एक धुंआ सा दिखता है
जो भी लिखूं मैं मिटता है 
दो पल में ही
वो बातें, वो रातें, वो यादें, किसी की
छूटती ही जा रही है
टूटती ही जा रही है
वो हर कड़ी
इन साँसों को, आहों को, मेरे गुनाहों की
मिल रही है कोई सजा
जन्नतें कहाँ...

फिर  कहाँ, फिर कहाँ
खो गया, रास्ता
यूँ तो आँखों के ही सामने था
मंजिल का पता
फिर भी जाने कैसे रह गया
ये दो कदम का फासला
ये दरमियाँ, अपने दरमियाँ
जन्नतें कहाँ...

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